राजस्थान के बारे में हर कोई जाना चाहता है क्योंकि यहाँ की संस्कृति, परंपरागत चीज़े, भोजन, पहनावा आदि सब बहुत ही लोकप्रिय हैं. अगर बात की जाए यहाँ की कला की तो वह भी काफी अद्भुत है. आज के आर्टिकल में राजस्थान की चित्रकला के बारे में बताएँगे.
राजस्थान में प्राचीन कल से ही हिन्दू, मुस्लिम, जैन, बौद्ध धर्म के लोगों द्वारा मंदिर, मठ, मस्जिद, मकबरे, स्तम्भ आदि के निर्माण किया जाता था. चित्रकला में लोगों को काफी वक़्त से रूचि रही थी.
राजस्थान की चित्रकला राजपूतकाल में भित्तिचित्र, पोथीचित्र, काष्ठपाट्टिका चित्र और लघुचित्र बनाने की परम्परा चली आ रही हैं. ज्यादतर रियासतों के चित्र बनाने के तौर-तरीकों की जगह मौलिकता और सामाजिक-राजनैतिक परिवेश के कारण अनेक चित्रशैलियों का विकास हुआ था जिनमें से यथा-मेवाड़, मारवाड़, बून्दी, बीकानेर, जयपुर, किशनगढ़ और कोटा चित्रशैली शामिल हैं. राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भिक और मौलिक रूप मेवाड़ शैली में दिखाई देता है, इसलिए इसे राजस्थानी चित्रकला की माँ कहा जाता है. 1260 में चित्रित श्रावक प्रतिक्रमणसम्पूर्णि नामक चित्रितीं ग्रंथ इसी शैली का प्रथम उदाहरण रूप है.
अब बात की जाए गहराई से चित्रकला के बारे में.
मेवाड़ शैली – मेवाड़ राज्य की राजस्थान की चित्रकला को सबसे प्राचीन केन्द्र माना जाता हैं. महाराणा अमरसिंह के शासनकाल में इस चित्रकला को अधिक विकास मिला. लाल-पीले रंग का ज्यादा प्रयोग, गरूड़नासिका, परवल की खड़ी फांक से नत्रे, घुमावदारवलम्बी अंगुलियां, अंलकारों की अधिकता और चेहरों की जकड़न आदि इस चित्रकला की प्रमुख विषेशता मानी जाती हैं. मेवाड़ शैली के चित्रों का विषय श्रीमद्भागवत्, सूरसागर, गीतगोविन्द, कृष्णलीला, दरबार के दृष्य, शिकार के दृष्य आदि में हैं. इस चित्रकला के चित्रकारों में मनोहर, गंगाराम, कृपाराम, साहिबदीन और जगन्नाथ प्रमुख माने जाते हैं. राजा अमरसिंह के काल से ही इस चित्रकला पर मुगल का प्रभाव दिखाई देता है.
मारवाड़ शैली – राजस्थानी चित्रकला मारवाड़ में रावमालदेव के समय इस ही शैली का स्वतन्त्र रूप से विकास हुआ था. इस शैली में पुरूष लम्बे चौड़े गठीले बदन के, स्त्रियाँ गठीले बदन की, बादामी आँखें, वेशभूषा ठेठ राजस्थानी और पीले रंग की मुख्यत होती थी. चित्रों के विषय में नाथचरित्र, भागवत, पंचतन्त्र, ढोला-मारू, मूमलदे, निहालदे, लोकगाथाएँ हुआ करती थी. चित्रकारों में वीर जी, नारायणदास, भारी अमरदास, छज्जूभाटी, किशनदास और कालूराम आदि प्रमुख माने जाते हैं.
बीकानेर शैली – राजस्थान की चित्रकला महाराजा अनूपसिंह के समय से हीं इस शैली का वास्तविक रूप में विकास हुआ था. लाल, बेंगनी, सलेटी और बादामी रंगों का प्रयोग, बालू के टीलों का अंकन, लम्बी इकहरी नायिकाएं, मेघमंडल, पहाड़ों और फूल-पत्तियों का इस्तेमाल इस शैली की प्रमुख विषेशताएँ रहती हैं. शिकार, रसिक प्रिया, रागमाला, शृंगारिक आख्यान विशेष रहते हैं. इस शैली पर पंजाब कलम, मुगल शैली और मारवाड़ शैली का प्रभाव देखने को मिलता है.
किशनगढ़ शैली– यह राजपतू कालीन चित्रकला की अत्यन्त आकर्षक शैली में एक हैं. इस शैली का सर्वाधिक विकास राजानागरीदास के समय में हुआ था. उभरी हुई ठोड़ी, नेत्रों की खंजनाकृति बनावट, धनुषाकार भौंए, गुलाबीअदा, सुरम्यसरोवरों का अंकन इस चित्रकला के चित्रों की प्रमुख विषेशताएं मानी जाती है ‘बनी-ठनी’ इस चित्रकला की सर्वोत्तमकृति है. जिसे भारतीय चित्रकला का ‘मोनालिसा’ भी कहा गया हैं. इसका चित्रण निहालचन्द ने किया था इस शैली के चित्रों में कला, प्रेम और भक्ति का अनोखा रूप देखने को मिलता हैं.
जयपुर शैली – इस चित्रकला का काल 1600 ई. से 1700 ई तक माना जाता हैं. इस शैली पर राजस्थान के मुगल चित्रकला का सर्वाधिक प्रभाव दिखता रहा है. सफेद, लाल, पीले, नीले तथा हरे रंग का ज्यादा प्रयोग, सोने-चाँदी का उपयोग पुरूष की बलिष्ठता और महिला की कोमलता इस शैली की प्रमुख विशेषता में हैं. शाही सवारी, महफिलों, राग-रगं , शिकार, बारहमासा, गीत गोविन्द, रामायण आदि विषय प्रमुख रहते है.
बून्दी शैली – राजस्थानी चित्रकला मेवाड़ से प्रभावित, राव सुरजन से प्रारम्भ बून्दी शैली उम्मेदसिंह के समय तक उन्नति के शिखर पर पहुँची. लाल, पीले रंगो की प्रचुरता, छोटा कद, प्रकृति का सतरंगी चित्रण इस चित्रकला की विशेषता रहती है. रसिकप्रिया, कविप्रिया, बिहारी सतसई, नायक-नायिका भेद ऋतुवर्णन बून्दी चित्रशैली के प्रमुख विषय रहते थे. इस शैली में पशु-पक्षियों का श्रेष्ठ चित्रण हुआ इसलिए इसे ‘पशु पक्षियों की चित्रशैली’ के नाम से भी जाना जाता हैं. यहाँ के चित्रकारों में सुरजन, अहमदअली, रामलाल, श्री किशन और साधुराम मुख्य होते थे.
कोटा शैली – राजस्थानी चित्रकला कोटा चित्रशैली में बून्दी तथा मुगल शैली का समन्वय पाया जाता रहा है. स्त्रियों के चित्र पुतलियों के रूप में, आँखे बड़ी, नाक छोटी, ललाटबड़ा, लंहगे उँचे, वेणी अकड़ी हुई इस शैली की प्रमुख विशेषतों में से एक रही है. चित्रों के विषय शिकार, उत्सव, श्री नाथ कथा चित्रण, पशु-पक्षी का चित्रण रहते हैं.
नाथद्वारा शैली – राजस्थानी चित्रकला में से यह एक अपनी अलग चित्रण विलक्षणता के लिए प्रसिद्ध रही. यहाँ श्रीनाथजी की छवियों के रूप में ‘पिछवाई चित्रण’ के नाम से भी जानी जाती हैं. इस प्रकार राजस्थान चित्रण की दृष्टि से सम्पन्न है. यहाँ पोथीखाना (जयपुर), मानसिंह पुस्तक प्रकाश (जोधपुर), सरस्वती भण्डार (उदयपुर) और स्थानीय महाराजाओं और सामन्तों के संग्रहालयों में चित्रकला का ऐसा समृद्ध भण्डार भी उपलब्ध है जो न केवल राजस्थान को धनी बनाए हुए है. भारत की कलानिधि का एक भव्य संग्रह में से एक हैं.
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