वैसे तो भारत अपने कॉमर्सियल सिनेमा के लिए बहुत प्रसिद्ध है, जिसे हम बॉलीवुड के नाम से जानते हैं. लेकिन बॉलीवुड की फिल्मों के अलावा, भारत में कला फिल्में भी बनाई जाती है, जिसे आर्ट फिल्म कहा जाता हैं. इन फिल्मों का कॉमर्सियल सिनेमा से कोई लेना देना नही होता हैं.
1960 से 1980 के दशक से ही भारत में आर्ट फिल्में या कहे समानांतर सिनेमा आमतौर पर सरकार द्वारा समर्थित सिनेमा हैं. सरकारों द्वारा कला फिल्मों के निर्देशकों को भारतीय विषयों पर गैर-वाणिज्यिक फिल्मों का निर्माण करने का अनुदान दिया जाता हैं. उनकी फिल्मों को राज्य के फिल्म समारोहों और सरकारी टीवी पर दिखाया हैं. भारत में आर्ट फिल्में देश और विदेशों के आर्ट हाउस थिएटरों में दिखाई जाती हैं.अगर बात करें देश की तो बिमल रॉय, रितिक घटक और सत्यजीत रे ने भारत में कला फिल्में बनाकर प्रसिद्धि प्राप्त की हैं. भारत में आर्ट सिनेमा की बात करें तो सबसे अच्छी फिल्मों में बिमल रॉय द्वारा दो बिघा जमीन (हिंदी) और सत्यजीत रे की अपू त्रियॉजी (बंगाली) बनाई हैं.
सत्यजीत रे देश में आर्ट सिनेमा के निदेशकों का सबसे बड़ा उत्कर्ष हैं. उनकी फिल्म मुख्य रूप से बड़े भारतीय शहरों में आर्ट-हाउस ऑडियंस के लिए चलाए जाने के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय सर्किट में भी दिखाई जाती हैं.बात करें दक्षिण भारत की तो कला सिनेमा या समानांतर सिनेमा केरल राज्य में अच्छी तरह से समर्थित था. मलयालम फिल्म निर्माता अदूर गोपालकृष्णन, जी अरविंदन और एम टी वासुदेवन नायर आर्ट फिल्मों में काफी सफल रहे.
1970 के दशक की शुरुआत से कर्नाटक राज्य के कन्नड़ फिल्म निर्माताओं ने गंभीर विषयों वाली कम बजट की फिल्मों का निर्माण किया. लेकिन वास्तव में उस समय केवल एक निर्देशक कला फिल्में बना रहे थे, उनका नाम था गिरीश कासरवल्ली.दक्षिण भारत के अन्य बाजारों में कन्नड़, तमिल, मलयालम और तेलगु जैसे सितारों और लोकप्रिय सिनेमा नियम बॉक्स ऑफिस पर छाए रहे हैं. लेकिन फिर भी, बालाचंदर, भारतीराजा, बलू महेंद्र, बापू, पुट्टाना, सिद्दीलियाह, डॉ विश्वनाथ और मणिरत्नम जैसे कुछ निर्देशकों ने कला और लोकप्रिय सिनेमा के तत्वों को संतुलित करते हुए बॉक्स ऑफिस पर सफलता हासिल की हैं.
इसे भी पढ़े: मशहूर कॉमेडियन भारती सिंह जल्द ही बंधने वाली है शादी के बंधन में