इतिहासकारों के मुताबिक भारतीय शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति वेद-पुराणों से मानी जाती है. हिन्दू धर्म के वेद सामवेद में संगीत के बारे में गहराई से चर्चा की गई है. भारतीय शास्त्रीय संगीत का अध्यात्म से भी विशेष संबंध रहा है, यही कारण है कि इसकी उपलब्धि मनुष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य जो कि मौत यानि कि ‘मोक्ष’ की प्राप्ति के संसाधनों के रूप में हुई है. चाहे कोई भी संगीत हो भारतीय शास्त्रीय संगीत की महत्ता इस बात से स्पष्ट होती है कि भारतीय आचार्यों ने इसे ‘पंचम वेद’ या ‘गंधर्व वेद’ की संज्ञा दी है.
हिन्दू धर्म में भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र’ भारत का पहला ऐसा उपन्यास था, जिसमें नृत्य,नाटक और संगीत के मूल सिद्धांतों का सरल और साधारण प्रतिपादन किया गया था.
शास्त्रीय संगीत का इतिहास
भारतीय शास्त्रीय संगीत हमारे भारतीय संगीत का एक अभिन्न अंग है. लगभग तीन हज़ार वर्ष पूर्व रचे गए इस शास्त्रीय संगीत को संगीत का मूल स्रोत माना जाता है. शास्त्रीय संगीत के बारे में यह माना जाता है कि ऋषि ब्रह्मा ने नारद मुनि को संगीत का वरदान में दिया था. जिसके बाद चारों वेदों में, सामवेद के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या समगान के मुताबिक संगीत सातों स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाने लगा. हमारे भारत में गुरु और शिष्य परंपरा के मुताबिक, शिष्य को अपने गुरु से वेदों का ज्ञान मौखिक रूप में मिलता था. शास्त्रीय संगीत में किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी. भारत में शास्त्रीय संगीत मूल स्वरूप लुप्त इस लिए हो गया क्योंकि प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप नहीं होता था. ‘नाट्यशास्त्र’ जोकि भरतमुनि द्वारा रचित था, शास्त्रीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित प्रमाण है. हालाँकि इसकी रचना के समय के बारे में अभी भी कई मतभेद हैं. आज भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन उपन्यास के द्वारा मिलता है. अगर हम ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास के बारे में बात करें तो ‘नाट्यशास्त्र’ के बाद शारंगदेव द्वारा रचित ‘संगीत रत्नाकर’ को बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है. 12वीं सदी से पहले लिखे गये सात अध्यायों वाले इस उपन्यास में संगीत एवं नृत्य का संपूर्ण विस्तार है.
शास्त्रीय संगीत का इतिहास में संगीत रत्नाकर
‘संगीत रत्नाकर’ में कई तालों का उल्लेख है. संगीत के इस उपन्यास से पता चलता है पारंपरिक संगीत में उस समय प्राचीन भारतीय बदलाव आने शुरू हो चुके थे और संगीत पहले से और भी ज्यादा उदार होने लगा था. इसके इतिहास में हज़ारवीं सदी के अंत तक, उस समय प्रचलित संगीत के स्वरूप को प्रबंध कहा जाने लगा था. उस दौरान प्रबंध दो प्रकार के हुआ करते थे.
- निबद्ध प्रबंध
- अनिबद्ध प्रबंध
इनमें से निबद्ध प्रबंध को ताल की परिधि में ही रह कर गाया जाता था, जबकि अनिबद्व प्रबंध बिना किसी ताल बंधन के, मुक्त और स्वतंत्र रूप में गाया जाता था. प्रबंध का एक अच्छा और बड़ा उदाहरण जयदेव द्वारा रचित ‘गीत गोविंद’ है.
जैसे-जैसे समय बीता वैसे-वैसे संगीत के स्वरूप में भी परिवर्तन आए हैं, किन्तु मूल तत्व एक ही रहे हैं. मुग़ल कालीन भारतीय संगीत फ़ारसी व मुस्लिम संस्कृति के प्रभाव से अछूता नहीं रह सका. इस दौरान उत्तर भारत में ज़्यादातर मुग़ल साम्राज्य फैला हुआ था, जिसके कारण उत्तर भारतीय संगीत पर इस्लामिक संस्कृति व इस्लाम का प्रभाव ज़्यादा महसूस किया जा सकता है.
वहीँ दक्षिण भारत में प्रचलित संगीत किसी प्रकार के बाहरी प्रभाव से अछूता ही रहा. इस तरह भारतीय संगीत का दो भागों में विभाजन हो गया-
- उत्तर भारतीय संगीत या हिन्दुस्तानी संगीत
- कर्नाटक शैली
उत्तर भारतीय संगीत में काफ़ी बदलाव आए. संगीत अब मंदिरों तक ही सीमित न रहकर शहंशाहों के दरबार की शोभा बन चुका था. इसी समय कुछ नई शैलियाँ भी प्रचलन में आईं, जैसे- ख़याल, ग़जल आदि और भारतीय संगीत का कई नए वाद्यों से भी परिचय हुआ, जैसे- सरोद, सितार इत्यादि. बाद में सूफ़ी आंदोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया. आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ. ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नए वाद्य प्रचलन में आए. आम जनता में भी प्रसिद्ध आज का वाद्य हारमोनियम, उसी समय प्रचलन में आया था. इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्त्वपूर्ण योगदान रहा.
भारतीय शास्त्रीय संगीत स्वरों व ताल के अनुशासित प्रयोग पर आधारित है. सात स्वरों व बाईस श्रुतियों के प्रभावशाली प्रयोग से विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है. सात स्वरों के समुह को ‘सप्तक’ कहा जाता है. भारतीय संगीत सप्तक के ये सात स्वर इस प्रकार हैं-
- षडज (सा)
- ऋषभ (रे)
- गंधार (ग)
- मध्यम (म)
- पंचम (प)
- धैवत (ध)
- निषाद (नि)
‘सप्तक’ को मूलत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है- ‘मन्द्र सप्तक’, ‘मध्य सप्तक’ व ‘तार सप्तक’, अर्थात् सातों स्वरों को तीनों सप्तकों में गाया और बजाया जा सकता है. षड्ज व पंचम स्वर अचल स्वर कहलाते हैं, क्योंकि इनके स्थान में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया जा सकता और इन्हें इनके शुद्ध रूप में ही गाया बजाया जा सकता है. जबकि अन्य स्वरों को उनके कोमल व तीव्र रूप में भी गाया जाता है. इन्हीं स्वरों को विभिन्न प्रकार से गूँथ कर रागों की रचना की जाती है.
हिन्दुस्तानी शैली
ऋंगार, प्रकृति और भक्ति ये हिन्दुस्तानी शैली के प्रमुख विषय हैं. तबला वादक हिन्दुस्तानी संगीत में लय बनाये रखने में मददगार सिद्ध होते हैं. तानपुरा एक अन्य संगीत वाद्ययंत्र है, जिसे पूरे गायन के दौरान बजाया जाता है. अन्य वाद्ययंत्रों में सारंगी व हारमोनियम शामिल हैं. फ़ारसी संगीत के वाद्ययंत्रों और शैली, इन दोनों का ही हिन्दुस्तानी शैली पर काफ़ी हद तक प्रभाव पड़ा है.
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