32 साल तक अपनों के कत्लेआम की छवि लेकर बूढ़ी हो चुकी पथराई आँखों को मानों कोर्ट के एक फैसले ने संजीवनी दे दी हो. न्याय की चौखट से इन्साफ की गुहार लगाती दर्जनों आत्माओं को शायद आज सुकून मिल गया हो. देर से ही सही लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले ने एक बार फिर से न्यायपालिका में लोगों की उम्मीदों को बनाए रखने का काम किया है. जी हाँ!! आज हम बात कर रहे हैं मेरठ के हाशिमपुरा नरसंहार की. इस नरसंहार में करीब 40 नमाजियों को तत्कालीन पीएसी के जवानों ने मौत के घाट उतार दिया था.
पूरे मामले पर एक नज़र
साल 1987. मेरठ का हाशिमपुरा इलाका। जुमे की नमाज़ के लिए इकठ्ठा हुए करीब सैकड़ों लोग. अचानक पीएसी के कुछ जवान एक ट्रक से वहां आ धमकते हैं. जवानों ने करीब 50 हट्टे-कट्टे युवा नौजवानों को गाड़ी पर बैठा लिया। इससे पहले वहां कुछ सांप्रदायिक दंगे हुए थे. भीड़ द्वारा पूछने पर पुलिस द्वारा बताया गया कि उन्हें पूछताछ के लिए हिरासत में लिया जा रहा है बाद में छोड़ दिया जाएगा। इसके बाद लोगों से भरी ट्रकों ने नहर की तरफ रुख किया। बस वहीँ रास्ते में शुरू हुआ मौत का घिनौना खेल.
पुलिस के जवानों ने ट्रक में लादे गए लोगों को उतारकर गोली मरना शुरू किया। गोली मारकर लोगों को नहरों और झाड़ियों में फेंक दिया गया. कुछ खुशनसीब भी थे जो उस गोलीकांड में बच गए थे. इन्ही बचे हुए लोगों ने जो दास्ताँ बयां की वह बेहद ही बेचैन कर देने वाली थी.
30 साल बाद मेरठ के मौजूदा पुलिस कप्तान ने हाशिमपुरा काण्ड पर एक किताब लिखी जिसमे इस घटना का हृदयमार्मिक जिक्र किया है. घटना के बाद साल 1996 ग़ाज़ियाबाद के चीफ़ ज्युडिशियल मजिस्ट्रेट के सामने पूरे मामले को पेश किया गया. साल 2002 में मारे गए लोगों के परिजनों के आग्रह पर सुप्रीम कोर्ट ने मामले को यूपी से हटाकर दिल्ली तबादला कर दिया।
साल २०१५ में सत्र न्यायालय ने गवाहों के अभाव में पुलिसवालों को रिहा कर दिया था जिसके बाद तो मारे गए लोगों के परिजन बुरी तरह टूट गए थे. इस हमले में बच निकलने वाले प्रत्यक्षदर्शी जुल्फिकार उस घटना को याद कर सिहर जाते हैं. वे बताते हैं कि एक गोली उनकी कनपटी को छूती हुई निकल गई. वे खुशनसीब थे कि उनकी जान बच गुई और पुलिसवालों ने अँधेरे में उन्हें मरा हुआ समझ लिया था. जुल्फिकार कहते हैं कि इस घटना के साक्ष्य के लिए उन्होंने दिन रात मेहनत कर साक्ष्य इकठ्ठा किया जिससे आज मृतकों को न्याय मिल गया है.
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