भारत एक ऐसा देश है जहां हर तरह के लोग और जीव-जंतु पाए जाते हैं. यहाँ की संस्कृति सभी देशों की संस्कृति से बेहद अलग है. हमारे देश में हर तरह की जाति को समान्य नज़रिये से देखा जाता है, लेकिन कुछ वर्ष पहले यहाँ ऐसे हालात नहीं थे. स्वतंत्रता से पूर्व समाज के विशिष्ट वर्ग एवं राजा-महाराजा भी इन आदिवासियों के क्षेत्र से छेड़-छाड़ नहीं करते थें. लेकिन भारत अंग्रेजो का गुलाम था तो यहाँ जात-पात में बहुत भेद-भाव किया जाता था साथ ही सभी लोगों की सोच को अंग्रेजो द्वारा नियंत्रित कर सबके दिमाग में सभी जातियों की लिए हीन भावना भर दी गई थी. तो सोचने वाली बात यह है कि जब आम जातियों में इतनी कड़वाहट थी तो उनसे पिछड़े जन-जातियों का क्या हाल होगा?
आदिवासियों को लोग बहुत ही ग़लत नजरिये से देखते आ रहे हैं लेकिन सोचने वाली बात यह है कि यदि वह न होते तो क्या सच में हमारा जीवन इतना ऐशो-आराम युक्त होता? शायद नहीं क्योंकि हमारे वन और वनस्पत्तियों की देख-रेख हकीकत में आदिवासी लोग ही करते है. उनका जीवन इन्ही जंगल और वन्स्पत्तियों पर निर्भर है तो यह अपनी जान से भी ज्यादा इनका ख्याल रखते हैं. लेकिन लोगों की सोच न इन्हें अपनाती है न ही इनकी संस्कृति को. भारत में करीब तीन हजार की संख्याँ में विभिन्न प्रकार की जातियों और उप-जातियाँ का निवास है.रिती रिवाज और परम्पराओं की अपनी एक अलग विशेषताएं है. कई जातियाँ जैसे- मसलन, गोंड, भील, बैगा-भारिया आदि जंलों मे आनादिकाल के समय से निवास करती आ रही है. इन लोगों में वन- वन्य जीवों और पालतू पशुओं का संरक्षण करने के संचलन की परम्परागत है.
यदि बात की जाए साफ़-सुथरी हवा में विकार, जंगल में मंगल मनाने वाले इन भोले-भाले आदिवासियों का जीवन में जहर सा घुलता जा रहा है. आज इन आदिवासियों को पिछड़ेपन, अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी एवं वन-विनाशक के प्रतीक के रुप में देखा जाने लगा है. उनकी आदिम संस्कृति एवं अस्मिता को चालाक और लालची उद्दोगपति द्वारा खुले आम लूट-पाट कर रहे हैं. उन्होंने सपने में भी कल्पना नहीं की होगी कि पीढ़ी दर पीढ़ी जिन जंगलों में वह रहे थें, उनके सारे अधिकारों को किसी की नज़र लग जाएगी. नियम प्रतिपादित किया कि वनों की सारी जिम्मेदारी सरकार की हैं और यह परम्परा आज भी बाकायदा चली आ रही है.आदिवासी अब भी “झूम खेती” करते आ रहे है. पेडों को जलाते नहीं है, जिसके फ़लों की उपयोगिता है. महुआ का पेड़ इनके लिए किसी ‘कल्पवृक्ष’ से कम नहीं मानते. जब इन पर फ़ल पकते हैं तो वह इनको इकठ्ठा करते हैं और पूरे साल इनसे बनी रोटी का सेवन करते है. इन्हीं फ़लों को सड़ाकर वह उनकी शराब भी बनाते हैं और एक घूंट पीकर इनमें जंगल में रहने का हौसला बढ़ाता है.
यदि आदिवासियों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को भी दृष्टि में रखकर देखा जाए तो सभी योजनाओं को सही ठंग से किया जाता, तो संभव है कि पर्यावरण की समस्या ख़राब नहीं होती और न ही किसी भी तरह का प्रकोप होता. आदिवासी का वन एवं वन्य-जीव संस्कृति को बगैर छेड़-छाड़ किए संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए. एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापन न तो आदिवासी को पंसद आएगा और न ही वन्य जीव-जन्तुओं को, लेकिन यह सब बड़े पैमाने पर हो रहा है. इस पर अंकुश लगाए जाने की बहुत जरुरत है. अगर ऐसा नहीं किया गया तो यह तय है कि वनों का विनाश तो होगा ही, साथ ही पारिस्थिति की असंतुलन में भी वृद्धि हो जाएगी. अगर एक बार संतुलन बिगड़ा तो सुधारने वाला तो नहीं है.जब आदिवासी से वन-सम्पदा का मालिकाना का हक छीनकर केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के हाथों में चला जाएंगा तो केवल विकास के नाम पर बड़े-बड़े बांध रह जाएंगे और बदले में उन्हें मिलेगा बांधो से निकलने वाली नहरें, नहरों के आस-पास मचा दलदल और भूमि की उर्वरक शक्ति को कम करने वाली परिस्थिति और विस्थापित.
हम सभी को कहीं न कहीं सच्चाई का दामन पकड़ना होगा. यदि आदिवासी की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखते हुए तथा उनकी सक्रीय भागीदारी सुनिश्चित करते हुए उन्हें विकास की योजनाओं के साथ जोड़ दिया जाना चाहिए. फिर निश्चित ही कहा जा सकता है कि आदिवासी क्षेत्र में पर्यावरण के साथ अन्य भागों को भी सुरक्षित रखा जा सकता है, स्वस्थ पर्यावरण पर सारे राष्ट्र का अस्तित्व व भविष्य टिका हुआ हैं.
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